तुमने सिर्फ़ उड़ान देखी है ............
पीड़ा नहीं देखी मेरे परों की
जो तुमने क़तर डाले
ख़ून नहीं देखा तुमने बहता हुआ
क्योंकि तुम
देखना ही नहीं चाहते दर्पण
तुम्हें तो चाहिए बस समर्पण
हर हाल में,
हर सूरत में
क्योंकि तुम शोषक हो जन्म-जन्मान्तर से
संस्कार पुराने जायेंगे नहीं
सुविचार तुम्हें भायेंगे नहीं
लेकिन मैं !
मैं तो माँ हूँ................
सब की माँ हूँ
मानव तो मानव
रब की माँ हूँ
इसलिए ममता से आकंठ लाचार हूँ........
और हर दर्द सहने के लिए तैयार हूँ
मैं दर्द बाँटती नहीं,
पी लेती हूँ
वेदना को गाती नहीं,
जी लेती हूँ
इसीलिए मेरी तुलना धरती से की गई है रे पुरूष !
और तेरी आसमान से ।
क्योंकि तू तो जब तब रो लेता है
और अपने सारे पाप धो लेता है
लेकिन मैं !
मैं वह तपस्विनी............
जिसका कोई भी क्षण पतित नहीं होता
साँस का स्पन्दन भी
धर्माचरण की लय से रहित नहीं होता

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जिसका कोई भी क्षण पतित नहीं होता
ReplyDeleteसाँस का स्पन्दन भी
धर्माचरण की लय से रहित नहीं होता==== झूठ है, हर युग में पतित नारियां होती आईं हैं.
-----यह पुरुष--नारी समस्या नहीं, अनाचरण समस्या है मानव मात्र के दुष्टाचरण की.
ख़ून नहीं देखा तुमने बहता हुआ
ReplyDeleteक्योंकि तुम
देखना ही नहीं चाहते दर्पण
तुम्हें तो चाहिए बस समर्पण'
ओह!ये क्या लिखा आपने? मेरी समझ से परे है .दर्पण में व्यक्ति खुद को देखता है न?बहता खून.......किसका है,किसने दिया?बात नारी और उसकी गहरे ,अच्छाइयों की कर रहे हैं आप.फिर ये पंक्ति?बुरा ना मानिये किन्तु आपकी कविता के भावों से मेच नही कर रही.
शेष..........पूरी कविता स्त्री के लिए आपके मन मे सम्मान और ऊँचे स्थान को दर्शाता है.
डॉ श्याम गुप्त ने सही कहा 'हर युग मे पतित नारियाँ और पुरुष रहे हैं,रहेंगे.मगर अनुपात अच्छे लोगो का ज्यादा रहा है,रहेगा.
बहुत-२ प्यार आपको और आपकी कविता.